Robinson crusoe story in hindi
राबिन्सन क्रूसो (उपन्यास) : डैनियल डीफ़ो, अनुवादक : पं. जनार्दन झा
द्वीप का पुनर्दर्शन
मैं पहले कह पाया हूँ कि समस्त द्वीप देखने की मेरी इच्छा थी। मेरे कुञ्जभवन के पास ही समुद्र था। मैं उसी ओर समुद्र के किनारे किनारे घूमने की इच्छा से बन्दूक, कुल्हाड़ी, कुत्ते, यथेष्ट गोली-बारूद, दो डिब्बे बिस्कुट और एक बड़ो थैली में सूखे अंगूर लेकर रवाना हुआ। समुद्रतट पर जाकर पहले पश्चिम ओर की स्थल-भूमि देखी। किन्तु कुछ निश्चय नहीं कर सका कि वह किस द्वीप या महादेश का किनारा है। अनुमान किया, वह किनारा पन्द्रह-बीस मील से दूर न होगा। मैंने यही मान लिया कि यह अमेरिका ही का कोई अंश होगा और वहाँ असभ्य लोग रहते होंगे। अहा!
यदि मैं वहाँ किसी तरह पहुँच सकता तो विधाता का सदय विधान जान कर हृदय से कृतज्ञ होता।
फिर मैंने यह सोचा कि यदि वह स्पेन का राज्य होगा तो एक न एक दिन कोई जहाज़ इस रास्ते से जाते आते ज़रूर दिखाई देगा। यदि ऐसा न होगा तो निश्चय कर लूँगा कि यह असभ्य लोगों का मुल्क है और वे असभ्य कुछ ऐसे वैसे न होंगे, वे ज़रूर नरखादक राक्षस होंगे।
इन बातों को सोचते-विचारते मैं धीरे धीरे आगे बढ़ा। मैंने जिस ओर अपने रहने के लिए घर बनाया था उस ओर से इस तरफ का समुद्रतट अधिक रमणीय मालूम होने लगा। खूब लम्बा-चौड़ा मैदान हरियाली, भाँति भाँति के फूल और तरु-लताओं से शोभायमान था। झुण्ड के झुण्ड हरे रंग के सुग्गे इधर से उधर आकाश को सब्ज़ करते हुए उड़े क्या जा रहे थे मानो आकाश में कमल घास के खेत बहे जाते हों। यदि मैं एक सुग्गे को पकड़ सकता तो उसे पालता और पढ़ना सिखाता। बड़ी युक्ति से मैंने एक दिन एक तोते के बच्चे को लाठी की झपट मार कर नीचे गिराया। उसे पकड़ कर मैं घर पर लाया और यत्नपूर्वक पढ़ाने लगा। किन्तु बहुत दिनों बाद उसका कण्ठ खुला। आख़िर उसने बोलना सीखा। वह बड़ी कोमलता से मेरा नाम लेकर मुझे पुकारने लगा।
इस प्रकार भ्रमण करने से मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हो गया था। निम्न भूमि में कहीं कहीं ख़रगोश और श्टगाल के सदृश जानवर नज़र आते थे। मैंने कई एक खरगोश मारे परन्तु वे ऐसे, विचित्र शकल के, थे कि उनको खाने की प्रवृत्ति न होती थी। मज़बूरी हालत में पड़ कर ही लोग ऐसी वस्तु खाते हैं जो खाने के लायक नहीं। अब भी मुझे खाद्य पदार्थ का अभाव न था। बकरे, कबूतर और कछुए-जिन्हें मैं खूब पसन्द करता था—बहुतायत से पाये जाते थे; इसलिए अनाप शनाप चीज़ खाने की मुझे आवश्यकता न थी। मेरी अवस्था यद्यपि अत्यन्त शोचनीय थी तथापि खाद्य-वस्तुओं की कमी न थी, इस कारण मैं हृदय से ईश्वर का कृतज्ञ था।
मैं एक दिन में दो मील से अधिक रास्ता नहीं चलता था। किन्तु देश की दशा देखने के लिए मैं दिन भर इस प्रकार घूमता रहता था कि रात बिताने के अड्डे पर आते आते एकदम थक कर पड़ रहता था। पेड़ के ऊपर या जमीन में थोड़ी सी जगह घेर कर उसके भीतर रात बिताता था जिसमें कोई जन्तु मेरी निद्रित अवस्था में मुझ पर एकाएक आक्रमण न कर सके।
इस तरफ़ समुद्रतट पर आकर देखा, कछुए और पक्षी बहुत थे। पक्षी प्रायः सब मेरे पहचाने हुए थे। जो परिचित न भी थे उनका भी मांस बहुत स्वादिष्ठ था। तब मैंने समझा कि जिधर द्वीप का सब से ख़राब अंश था उधर ही मैंने घर बनाया है। वहाँ डेढ़ वर्ष के भीतर मुझे इने गिने तीन कछुए मिले थे।
मैं जितना चाहता उतना पक्षियों का शिकार कर सकता था। किन्तु बारूद-गोली शीघ्र चुक जाने की आशङ्का से पक्षियों को यथेच्छ न मार सका। मैं चिड़ियों के शिकार की अपेक्षा बकरों के शिकार को ज़्यादा पसन्द करता था। कारण यह कि एक बकरे से कई दिनों का खाना मजे में चल जाता था। मेरे घर की तरफ़ से द्वीप के इस हिस्से में बकरों की संख्या भी बहुत अधिक थी। किन्तु यह भाग द्वीप के और भागों की तरह ऊँचा नीचा न था। इधर की भूमि समतल थी। इसलिए वे मुझ को दूर से देखते ही बड़ी तेजी से भाग जाते थे। उनका पीछा में कहाँ तक कर सकता।
इधर का सामुद्रिक तट यद्यपि मुझे अधिक रमणीय जँचता था तथापि मुझे अपने वासस्थल को उठाकर इस तरफ़ लाने की इच्छा न होती थी। ऐसे सर्वांशसम्पन्न घर को तोड़ कर नई जगह में आने को जी नहीं चाहता था। मैं इस तरफ़ सिर्फ घूमने ही आया था, जी मेरा अपने हाथ के बनाये हुए घर की ओर ही लगा था। समुद्र के किनारे किनारे मैंने अन्दाज़न बारह मील, जाकर घर लौट आने की इच्छा की। अपने घूमने की सीमा को निर्दिष्ट रखने की इच्छा से मैंने समुद्रतट पर एक लम्बा सा खंभा गाड़ दिया। वही मेरे पश्चिम ओर के भ्रमण का अन्तिम चिह्न हुआ। मैंने निश्चय किया कि घर जाकर अब पूरब ओर की यात्रा करूँगा और उधर से घूमते घूमते जब चिह्मस्वरूप गड़े हुए खमे तक आ जाऊँगा तब समझूँगा कि मेरी द्वीप-परिक्रमा पूरी हुई।
द्वीप का पूरा पूरा परिचय पाने के लिए मैं जिस राह से गया था उस राह से न लौटकर दूसरे रास्ते से लौटा। दो तीन मील आते न आते मैं पहाड़ की एक ऐसी तराई में पहुँचा कि जंगल से ढकी हुई राह में दिशा का र्निर्णय करना कठिन हो गया। मैं अपने दुर्भाग्य से तीन चार दिन तक तराई के जंगल में मार्ग भूलकर घूमता रहा। उसकी वजह यह थी कि कई दिनों से आकाश कुहरे से बिलकुल ढका था, इसलिए सूर्य्य को देखकर दिशा के निर्णय करने का भी सुयोग न था। मैं अत्यन्त उद्विग्नतापूर्वक घूम फिर कर आखिर फिर समुद्र-तट को ही लौट आया। यहाँ मैंने अपने चिह्न-स्वरूप खम्भे को ढूँढ़ निकाला। फिर जिस रास्ते से घूमने आया था उसी रास्ते से लौटा। तब आकाश बिलकुल साफ़ हो गया था। सूर्य का ताप असह्य हो उठा। बन्दूक, कुल्हाड़ी और अन्यान्य भारी वस्तुएँ लिये रहने के कारण पसीने से तरबतर होता हुआ घर पहुँचा। मेरे अदृष्ट की बलिहारी है।
लौटते समय मेरे कुत्ते ने एक बकरी के बच्चे को पकड़ लिया। मैं झट दौड़कर गया और उसके पास से उसे छुड़ा लिया। मैं दो-चार बकरों को पाल कर उनकी संख्या बढ़ाना चाहता था। यह इस लिए कि शायद गोली-बारूद घट भी गई तो मेरे खाने को कुछ टोटा न रहे। इस बकरी के बच्चे को घर ले जाकर पालूँगा, यह मैंने पहले ही सोच लिया था। अब एक गर्दानी (गले की रस्सी) बना करके उसके गले में बाँध दी और उसमें एक रस्सी बाँधकर उसे खींचते हुए किसी तरह अपने कुञ्जभवन में ले गया। मैं घर लौटने के लिए व्यग्र हो रहा था, क्योंकि घर छोड़े एक महीना हो गया था। बकरे को खींचकर घर ले जाने में विलम्ब होता, इसलिए उसे कुञ्जभवन में ही बाँध रक्खा।
बहुत दिनों के बाद घर लौट कर बिछौने पर सोने से जो आराम और सुख मिला उसका वर्णन नहीं हो सकता। चिरवियोग के बाद प्रिय-सम्मिलन का सुख और परदेशी को स्वदेश लौटने का सुख भी इस सुख के आगे तुच्छ है। मैंने इस निरुद्देशयात्रा में जो कुछ सुख का अनुभव किया था उससे कहीं बढ़कर सुख घर आने पर मिला। इससे मैंने संकल्प किया कि अब से कभी अधिक दूर न जाऊँगा।
मैंने घर आकर एक सप्ताह विश्राम किया। इधर कई दिनों तक मैं तोते के लिए एक पींजरा बनाता रहा। एकाएक मुझे कुञ्जभवन में बँधे हुए बकरी के बच्चे की बात स्मरण हो आई। मैं उसे घर ले आने की इच्छा से रवाना हुआ। वहाँ जाकर देखा, वह मारे भूख-प्यास के अधमरा सा हो गया है। मैंने पेड़ से हरे हरे पत्ते तोड़कर उसे खिलाये। वह भूख से ऐसा व्याकुल था कि खाने के लाभ से पालतू कुत्ते की भाँति आपही मेरे पीछे पीछे आने लगा। मेरे हाथ से दाना-घास पाकर वह खूब हिल गया। मेरे साथ वह सखा का सा व्यवहार करने लगा। मैं भी उसे जी से प्यार करने लगा।
फ़सल
इस द्वीप में मेरा तीसरा साल आरम्भ हुआ। प्रथम वर्ष की तरह दूसरे साल का वृत्तान्त यद्यपि मैं सविस्तार वर्णन न करता तो भी पाठकों ने समझ लिया होगा कि मैं आलसी बनकर बैठ न रहा था। शिकार खेलना, घर बनाना, खाद्य सामग्री तथा आश्रम के उपयुक्त वस्तुओं का संग्रह करना इत्यादि सब काम मुझी को करना पड़ता था। उपकरण न होने से सीधा काम भी मेरे लिए परिश्रमसाध्य और समय-सापेक्ष हो जाता था। दो आदमी जिस तने में से दिन भर में कम से कम छः तख़्ते चीर कर निकाल सकते हैं उसी में से मैंने बयालिस दिन में सिर्फ एक तख्ता निकाला था। पाठकगण इसी से मेरे काम की शृंखला और दौर्भाग्य की बात समझ जायँगे।
मैं इस द्वीप में उतरने की तिथि ३० वीं सितम्बर को बराबर, पर्व दिन की भाँति पवित्र मानकर, उत्सव मनाता था। ईश्वर ने इस जनशून्य द्वीप में, मेरी इस असहाय अवस्था में, जो कुछ सुख की सामग्री दे रक्खी है वह इतने दिन तक कभी स्वजन-समाज में प्राप्त न हुई थी। इस कारण उनके चरणकमलों में मेरा चित्त चिरकृतज्ञ बना रहता था। दूसरी बात यह कि मैं अब अकेला ही कैसे हूँ?
ईश्वर अलक्षित रूप से मेरा साथ देकर मेरी निर्जनता को पूर्ण कर रहे हैं। इस समय मुझे उन पर भरोसा है। वे मेरे लिए शान्ति, सान्त्वना और उज्ज्वल आशा के रूप में प्रकाशमान हैं।
पहले जब दुःख के भार से मेरा मन व्याकुल हो उठता था तब मैं रो कर सान्त्वना की खोज करने लग जाता था, किन्तु अब और तरह की सान्त्वना को न खोज कर बाइबिल पढ़ता हूँ। एक दिन मेरा मन बड़ा ही उदास था। मैं सबेरे बाइबिल ले कर पढ़ने बैठा। पन्ना उलटाने के साथ पहले ही इस वाक्य पर दृष्टि पड़ी-ईश्वर का कथन है "मैं अपने भक्तों को कभी नहीं छोड़ता, किसी भी अवस्था में नहीं।" अहा, कैसा चमत्कृत वाक्य है, कैसी मधुमयी वाणी है!
मानों स्वयं भगवान् मुझको सान्त्वना दे कर यह बात प्रत्यक्ष रूप से कह रहे हैं। तो अब भय क्या? मैं भी उसी जगत्पिता का एक पुत्र हूँ।
इसी प्रकार काम करते और सोचते विचारते हेमन्तकाल उपस्थित हुआ। इस समय मेरी धान और जौ की फसल के पकने का समय आया। धान के पौदे खूब हरे भरे थे किन्तु मैंने देखा कि धान के विनाशक शत्रुओं से मेरा सर्वनाश होने की सम्भावना है। बकरे और वे जङ्गली जानवर-जिनको मैंने एक किस्म का ख़रगोश मान लिया था-धान के पेड़ों की मधुरता चख कर नित्य रात रात भर मेरे ही खेत में पड़े रहते थे और जहाँ पौदे ज़रा बढ़ने लगते तहाँ उन्हें नोच कर खा डालते थे। इस से उन पेड़ों को झाड़ बाँधने का अवकाश नहीं मिलता था।
इन दुष्ट जन्तुओं से सस्यरक्षा का एकमात्र उपाय बाड़ी लगाना था। बड़ी शीघ्रता से काम करने पर भी उस छोटे से खेत को घेरने में मुझको कोई तीन सप्ताह लगे। मैं दिन में खुद उस खेत की निगरानी करता और सुविधा मिलने पर सस्य-खादक जन्तुओं को गोली से मार डालता था। रात के समय अपने कुत्ते को घेरे के भीतर जाने के मार्ग में पहरा देने के लिए बाँध देता था। उसकी बोली सुन कर कोई जानवर उसके पास से होकर खेत के भीतर जाने का साहस न कर सकता था। इस उपाय के द्वारा शीघ्र ही उन जन्तुओं से खेत की रक्षा हुई। फ़सल भी क्रमशः पकने लगी।
दिसम्बर के अख़ीर में फसल अच्छी तरह पक गई। काटने का समय आ पहुँचा। किन्तु उसे काटे कैसे?
एक हँसुए की आवश्यकता थी। जहाज़ से जो जंग लगी हुई तलवार लाया था, उसको हँसुए की तरह टेढ़ा कर लिया। मेरा खेत ही कितना था और काटने वाला भी मैं अकेला ही था। किसी तरह उसी निजरचित हँसुए से काम निकल गया। धान की बाले काट कर टोकरे में भरी। पेड़ों को खेत में ही छोड़ दिया, लेकर क्या करता। धान की बाले घर पर ले आया और लाठी से पीट कर उनके दाने छुड़ा लिये।
मेरे आनन्द और उत्साह की सीमा न रही। ईश्वर की कृपा होगी तो समय पाकर अब मेरे आहार का प्रभाव मिट जायगा। किन्तु इतने पर भी मेरी असुविधा का अन्त न था। मैं न जानता था कि किस तरह जो पीस कर उसका आटा निकाला जाता है, आटा निकलने पर किस तरह वह छाना जाता है, छान लेने पर किस तरह उसकी रोटी बनती है और किस तरह सेंकी जाती है। कैसे क्या होगा, इसकी चिन्ता छोड़ कर मैंने इस दफ़े की सारी फसल बीज के लिए रख छोड़ी और बीज बोने के समय से पहले मैं अपने खाने-पीने की सामग्री सञ्चय करने में जुट गया।
एक साधारण रोटी पकाने के लिए कितनी ही सामान्य सामान्य वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इस पर प्रायः बहुत लोग ध्यान नहीं देते। एक तो मेरे रहने का ठिकाना नहीं, दूसरे कोई संगी साथी भी नहीं। खेती करने का कोई सामान नहीं। मेरे पास न हल है न बैल। न कुदाल है न खनती काठ का कुदाल जो बनाया था वह खराब हो गया तो भी उससे किसी किसी तरह काम चलाया। दूसरी दिक्कत यह थी कि बीज बोने के बाद हिंगाने की ज़रूरत थी। उसके लिए हेंगा (लकड़ी का भारी लम्बा तख्ता) चाहिए। मेरे पास वह नहीं था। मैं एक पेड़ की मोटी सी डाल काट कर ले आया और उसे घसीटता हुआ खेत में इधर उधर घूमा। उसे घसीट कर ले चलने से जो खेत में चिह्न पड़ गया उसी से काम चल गया। फसल उगने पर फिर उसकी हिफाज़त के लिए बहुत कुछ करना पड़ा। बाड़ लगाना, पकने पर काटना, अनाज अलग करना आदि कितने ही काम करने पड़े। इसके बाद आटा पीसने के लिए जाँता, चालने के लिए चलनी आदि की आवश्यकता हुई। इसके बाद आटा माँड़ कर रोटी बनाने और सेंकने का नम्बर था। ये सब काम किसी तरह मुझको करने ही पड़ते थे।
इस दफ़े बीज बोने के लिए बहुत लम्बा चौड़ा खेत चाहिए। इसलिए कुछ ज़्यादा खेत ठीक करना होगा। यह सोच कर मैंने सात आठ दिन में एक और काठ का कुदाल बना लिया। पर यह भारी और कुछ भद्दा बना। इसके चलाने में मुझे बड़ी मेहनत पड़ती थी। मैंने अपने घर के बहुत ही नज़दीक दो क्यारी खेत-जोत गोड़ कर ठीक किया। इसके बाद उन पेड़ों की डाल से खेत को चारों ओर से अच्छी तरह घेर दिया जिनकी डाल रोपने से लग जाती है। इस समय बरसात शुरू हो गई थी, इसलिए जभी कुछ फुरसत मिल जाती थी तभी बाड़ी लगा देता था। इसमें मुझे तीन महीने लगे। वृष्टि बन्द होने पर मैं घेरा बनाता था और वृष्टि होने के समय घर में बैठ कर तोते को पढ़ाता था। मैंने तोते का नाम रक्खा था "आत्माराम'। वह बड़े स्पष्ट स्वर में अपना नाम लेकर पुकारता था-"आत्माराम"। इस द्वीप में आकर मैंने अपनी बोली के सिवा यही पहले पहल दूसरे का कण्ठस्वर सुना। अहा!
सुनने में क्या ही मधुर लगता था!
मिट्टी के बर्तन बनाना और रोटी पकाना
मैं इस समय केवल तोते के पढ़ाने ही में भूला न था; किन्तु यह भी सोच रहा था कि मिट्टी के बर्तन किस तरह बनाये जा सकेंगे। पहले मैंने सोचा कि बर्तन बनाने के लिए पहले चाक बहुत ज़रूरी है। यदि बर्तन बनाने के लायक मिट्टी मिल जाय तो उससे बर्तन बना कर धूप में सुखा लेने से सूखी चीज़ रखने का सुभीता होगा। पहले मैंने मैदा रखने के लिए खुब बड़ी बड़ी हँड़ियाँ बनाने का विचार किया।
पहले पहल अपने कार्य की विफलता, फिर बर्तन बनाने की अनभिज्ञता, और इसके बाद बेडौल बर्तन गढ़ने का वर्णन करने से पाठकगण अवश्य हँसेंगे। कोई टेढ़ा मेढ़ा, कोई बदशकल, और कोई विचित्र रूप का बर्तन बना। उस पर भी कोई फट जाता, कोई अपने भार से आप ही टूट जाता, और कोई हाथ लगते ही टूट जाता था। दो महीने तक मैं बराबर बर्तन बनाने के पीछे हैरान रहा। मैं बड़े कष्ट से मिट्टी खोद कर लाता था। उसे अच्छी तरह रौंद कर मैंने बार बार विफल प्रयत्न होकर भी अन्त में विचित्र शकल के दो बर्तन (उसका नाम क्या बतलाऊँ, वह न हाँड़ी थी न घड़ा था न कराही थी; न मालूम वह विचित्र आकार का क्या था!) बनाये। इन दोनों अज्ञातनामा बर्तनों को धूप में सुखा कर एक टोकरे में रक्खा और उसके चारों ओर पयाल का बेठन दे दिया।
यद्यपि मैं बड़ा बर्तन गढ़ने में सफलता प्राप्त न कर सका तथापि छोटे छोटे कितने ही बर्तन मैंने एक तरह से उमदा तैयार कर लिये। मलसी, रकाबी, ढकनी, कलसी, इसी किस्म के और भी छोटे मोटे बर्तन जब जो मेरे हाथ से निकल गये उन्हें गढ़ कर तैयार किया और धूप में अच्छी तरह सुखा लिया।
किन्तु इससे मेरी कमी दूर नहीं हुई। मुझे तरल पदार्थ रखने और रसोई-पानी बनाने के उपयुक्त बर्तनों की आवश्यकता थी और ख़ास कर पके हुए बर्तनों की। एक दिन मैंने मांस पकाने के लिए खूब तेज़ आग जलाई। मांस पका कर जब आग बुझा दी तब देखा कि मेरे गढ़े हुए बर्तन का एक टुकड़ा भाग में पक कर खूब बढ़िया ईंट की तरह लाल और पत्थर की तरह सख्त हो गया है। तब मैंने मन में सोचा कि यदि फूटा हुआ पकता है तो साबित बर्तन क्यों न पकेगा?
इस आशा से मेरा हृदय आनन्द से उमँग उठा।
रसोई बनाने के उपयुक्त, आग सहने योग्य, पका बर्तन जब मुझे मिला तब जो आनन्द हुआ उस आनन्द की तुलना इस संसार में किसी वस्तु से नहीं हो सकती । ऐसी साधारण वस्तु से संसार में इस तरह कभी कोई खुश न हुआ होगा। बर्तनों को ठंडा तक न होने दिया। मैंने एक हाँडी में पानी ढाल कर मांस पकाने के लिए आग पर चढ़ा दिया। मेरा अभीष्ट सिद्ध हुश्रा। यद्यपि मेरे पास कोई मसाला न था तथापि मांस का मैंने बढ़िया शोरवा बनाया। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर मुझे बर्तनों की दिक्कत न रही। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उन बर्तनों का कोई निर्दिष्ट आकार न था और न वे देखने ही में सुन्दर थे; केवल काम चलाने योग्य थे।
अब उसका आकार बहुत कुछ डमरू का सा हुआ। फिर उसे खड़ा करके ऊपर के भाग को कुल्हाड़ी से खोद कर और उसके मध्य भाग को आग से जला कर किसी तरह खोखला किया। मैंने जिस कठोर वृक्ष के कुन्दे की ओखली बनाई उसी पेड़ की एक सीधी डाल काट कर ले आया और उसे कुल्हाड़ी से काटकर खम्भे के श्राकार का लम्बा सा मूसल बना लिया। ओखली-मुसल तैयार हो जाने पर उन्हें आगामी फसल की उपयोगिता की आशा पर रख छोड़ा। अब चिन्ता इस बात की रही कि फसल उपजने पर मैदा बना करके रोटी कैसे बनाऊँगा इसके बाद मैदा चालने के लिए एक चलनी भी ज़रूर चाहिए। बिना इसके मैदे से भूसी निकालना कठिन है, और भूसी मिले हुए मैदे की रोटी खाने योग्य न होगी। चलनी का काम कैसे चलेगा?
यह कठिन समस्या उपस्थित हुई। मेरे पास महीन कपड़ा भी न था। जो कपड़े थे, वे सब फट कर चिथड़े चिथड़े हो गये थे। मेरे पास बकरे की ऊन बहुतायत से थी, पर उससे कुछ बुनना या बनाना मैं न जानता था।
चलनी बनाने का उपाय सोचने में मेरे कई महीने बीत गये पर एक भी उपाय न सूझा। आख़िर मुझे यह बात याद हुई कि जहाज़ पर से जो नाविकों के कपड़े-लत्ते लाया हूँ उनमें कितने ही कपड़े जालीदार और मसलिन (मलमल) भी हैं। मैंने उन्हीं के द्वारा छोटी छोटी तीन चलनियाँ बनाईं। इन चलनियों से कई वर्ष तक मेरा काम निकला। इसके बाद मैंने क्या किया, यह आगे चलकर कहूँगा।
अब रोटी बनाने की चिन्ता हुई। मैदा तैयार होने पर किस तरह रोटी बनाऊँगा?
आखिर मैंने सोचा कि रोटी पकाने का काम भी मिट्टी के बर्तन से ही लेना चाहिए। फिर क्या था, मैंने मिट्टी का तवा बना कर उसे भाग में अच्छी तरह पका लिया। इससे रोटी पकाने का काम मजे में निकल गया। मैंने धीरे धीरे रोटी पकाने का सभी सामान दुरुस्त कर लिया। चूल्हा भी बना लिया। मुझे अपने हाथ से रोटी पका कर खाने का सौभाग्य पहले पहल प्राप्त हुआ। इससे मेरे आनन्द की सीमा न रही। रोटी के सिवा मैं अब कभी कभी चावल की पिट्ठी के पुवे भी बनाने लगा। इस द्वीप में निवास करते मेरा तीसरा साल इन्हीं सब कामों में कट गया। इसी बीच मैं अपनी फसल काट कर घर ले आया और उसे टोकरे में भर भर कर हिफाज़त से घर के भीतर रख दिया।
अब मेरे पास अन्न की कमी न रही । मैं अब दिल खोल कर अन्न खर्च करने लगा। खूब रोटी पकाता और भर पेट खाता था। मुझे अब अन्न रखने के लिए बुखारी की ज़रूरत हुई । मैं अन्न की बदौलत इस समय एक अच्छा मातवर आदमी बन गया।
(अधूरी रचना)